फिर न दरमाँ का कभी नाम 'मुबारक' लेना
कुफ़्र है दर्द-ए-मोहब्बत का मुदावा करना
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अजब रंग की मय-परस्ती रही
बद-ज़न हैं अहल-ए-काबा मुझ दैर-आश्ना से
हज़ारों मय-कदे सर पर लिए हैं
तुम को समझाए मुबर्रक कोई क्यूँकर अफ़्सोस
ये ग़म-कदा है इस में 'मुबारक' ख़ुशी कहाँ
गई बहार मगर अपनी बे-ख़ुदी है वही
जो पाँच वक़्त मुसल्ले पे क़िबला-रू निकले
आप का इख़्तियार है सब पर
घटा उट्ठी है काली और काली होती जाती है
देखे उसे हर आँख का ये काम नहीं है
ये घटा ऐसी घटा इतनी घटा
जाँ-निसारान-ए-मोहब्बत में न हो अपना शुमार