इस दर्द-ए-जुदाई से कहीं जान निकल जाए
'आज़ुर्दा' मिरे हक़ में ज़रा यूँ भी दुआ कर
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फ़लक ने भी सीखे हैं तेरे ही तौर
निकलना हो दिल से दुश्वार क्यूँ
अगर हम न थे ग़म उठाने के क़ाबिल
नासेह यहाँ ये फ़िक्र है सीना भी चाक हो
मैं और ज़ौक़-ए-बादा-कशी ले गईं मुझे
'आज़ुर्दा' मर के कूचा-ए-जानाँ में रह गया
ऐ दिल तमाम नफ़अ' है सौदा-ए-इश्क़ में
काश मक़्बूल हो दुआ-ए-अदू
नालों से मेरे कब तह-ओ-बाला जहाँ नहीं
ये कह के रख़्ना डालिए उन के हिजाब में