मस्लक-ए-इश्क़ बयाँ क्या कीजे
कुफ़्र ईमान हुआ जाता है
मुझ से ले ले कोई यादें मेरी
जी परेशान हुआ जाता है
बाग़बानों को ख़बर है कि नहीं
बाग़ वीरान हुआ जाता है
वहशत-ए-दिल के तसद्दुक़ 'मुमताज़'
घर बयाबान हुआ जाता है
Habib Jalib
Ahmad Faraz
Allama Iqbal
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न जाने कब निगह-ए-बाग़बाँ बदल जाए
लाई बहार शौक़ के सामाँ नए नए
हर दर्द के हर ग़म के तलबगार हमीं हैं
ये वफ़ा माँगे है तुम से न जफ़ा माँगे है
हाल न पूछो रोज़-ओ-शब का कोई अनोखी बात नहीं
रात काटे नहीं कटती है किसी सूरत से
ज़माना गुज़रा है तूफ़ान-ए-ग़म उठाए हुए
बहुत दावे किए हैं आगही ने
तिरे क़रीब भी दिल कुछ बुझा सा रहता है
पलकों पे कुछ चराग़ फ़रोज़ाँ हुए तो हैं
ग़मों में डूबी हुई है हर इक ख़ुशी मेरी