हम नहीं थे तो क्या कमी थी यहाँ
हम न होंगे तो क्या कमी होगी
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छाँव मिल जाए तो कम दाम में बिक जाती है
दरिया-दिली से अब्र-ए-करम भी नहीं मिला
सहरा पे बुरा वक़्त मिरे यार पड़ा है
अना हवस की दुकानों में आ के बैठ गई
ये बुत जो हम ने दोबारा बना के रक्खा है
लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है
दोहरा रहा हूँ बात पुरानी कही हुई
महफ़िल में आज मर्सिया-ख़्वानी ही क्यूँ न हो
आख़िरी सच
कुछ बिखरी हुई यादों के क़िस्से भी बहुत थे
घर में रहते हुए ग़ैरों की तरह होती हैं
किसी दिन मेरी रुस्वाई का ये कारन न बन जाए