किसी दिन मेरी रुस्वाई का ये कारन न बन जाए
तुम्हारा शहर से जाना मिरा बीमार हो जाना
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सारी दौलत तिरे क़दमों में पड़ी लगती है
तुम ने जब शहर को जंगल में बदल डाला है
घर में रहते हुए ग़ैरों की तरह होती हैं
मुझ को गहराई में मिट्टी की उतर जाना है
वुसअत-ए-सहरा भी मुँह अपना छुपा कर निकली
किसी ग़रीब की बरसों की आरज़ू हो जाऊँ
ख़ुद-कलामी
मसर्रतों के ख़ज़ाने ही कम निकलते हैं
अड़े कबूतर उड़े ख़याल
अना हवस की दुकानों में आ के बैठ गई
उकताए हुए बदन
ऐसा लगता है कि कर देगा अब आज़ाद मुझे