लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है
मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ हिन्दी मुस्कुराती है
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आते हैं जैसे जैसे बिछड़ने के दिन क़रीब
ऐसा लगता है कि कर देगा अब आज़ाद मुझे
बच्चों की फ़ीस उन की किताबें क़लम दवात
ये दरवेशों की बस्ती है यहाँ ऐसा नहीं होगा
थकन को ओढ़ के बिस्तर में जा के लेट गए
मिट्टी में मिला दे कि जुदा हो नहीं सकता
ये सर-बुलंद होते ही शाने से कट गया
आख़िरी सच
तमाम जिस्म को आँखें बना के राह तको
जुदा रहता हूँ मैं तुझ से तो दिल बे-ताब रहता है
मिट्टी का बदन कर दिया मिट्टी के हवाले
वुसअत-ए-सहरा भी मुँह अपना छुपा कर निकली