मिट्टी का बदन कर दिया मिट्टी के हवाले
मिट्टी को कहीं ताज-महल में नहीं रक्खा
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ऐ ख़ाक-ए-वतन तुझ से मैं शर्मिंदा बहुत हूँ
तमाम जिस्म को आँखें बना के राह तको
पत्थर के होंट
किसी ग़रीब की बरसों की आरज़ू हो जाऊँ
मैं इसी मिट्टी से उट्ठा था बगूले की तरह
किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकाँ आई
भुला पाना बहुत मुश्किल है सब कुछ याद रहता है
वो बिछड़ कर भी कहाँ मुझ से जुदा होता है
खिलौनों की दुकानों की तरफ़ से आप क्यूँ गुज़रे
उकताए हुए बदन
दोहरा रहा हूँ बात पुरानी कही हुई
तुम्हें भी नींद सी आने लगी है थक गए हम भी