ऐ ख़ाक-ए-वतन तुझ से मैं शर्मिंदा बहुत हूँ
महँगाई के मौसम में ये त्यौहार पड़ा है
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कुछ बिखरी हुई यादों के क़िस्से भी बहुत थे
फिर कर्बला के ब'अद दिखाई नहीं दिया
कल अपने-आप को देखा था माँ की आँखों में
जितने बिखरे हुए काग़ज़ हैं वो यकजा कर ले
ख़ुद-कलामी
किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकाँ आई
ये बुत जो हम ने दोबारा बना के रक्खा है
बादशाहों को सिखाया है क़लंदर होना
किसी के ज़ख़्म पर चाहत से पट्टी कौन बाँधेगा
काले कपड़े नहीं पहने हैं तो इतना कर ले
एक आँसू भी हुकूमत के लिए ख़तरा है
मुख़्तसर होते हुए भी ज़िंदगी बढ़ जाएगी