कल अपने-आप को देखा था माँ की आँखों में
ये आईना हमें बूढ़ा नहीं बताता है
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हम कुछ ऐसे तिरे दीदार में खो जाते हैं
ये सर-बुलंद होते ही शाने से कट गया
हाँ इजाज़त है अगर कोई कहानी और है
सहरा पे बुरा वक़्त मिरे यार पड़ा है
छाँव मिल जाए तो कम दाम में बिक जाती है
वुसअत-ए-सहरा भी मुँह अपना छुपा कर निकली
बच्चों की फ़ीस उन की किताबें क़लम दवात
फेंकी न 'मुनव्वर' ने बुज़ुर्गों की निशानी
वो बिछड़ कर भी कहाँ मुझ से जुदा होता है
दरिया-दिली से अब्र-ए-करम भी नहीं मिला
भले लगते हैं स्कूलों की यूनिफार्म में बच्चे
ये हिज्र का रस्ता है ढलानें नहीं होतीं