फेंकी न 'मुनव्वर' ने बुज़ुर्गों की निशानी
दस्तार पुरानी है मगर बाँधे हुए है
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मिरे बच्चों में सारी आदतें मौजूद हैं मेरी
सहरा पे बुरा वक़्त मिरे यार पड़ा है
भिकारी
कल अपने-आप को देखा था माँ की आँखों में
अब जुदाई के सफ़र को मिरे आसान करो
अड़े कबूतर उड़े ख़याल
मैं राह-ए-इश्क़ के हर पेच-ओ-ख़म से वाक़िफ़ हूँ
ये बुत जो हम ने दोबारा बना के रक्खा है
जितने बिखरे हुए काग़ज़ हैं वो यकजा कर ले
मिट्टी में मिला दे कि जुदा हो नहीं सकता
गर कभी रोना ही पड़ जाए तो इतना रोना
घर में रहते हुए ग़ैरों की तरह होती हैं