मिरी हथेली पे होंटों से ऐसी मोहर लगा
कि उम्र भर के लिए मैं भी सुर्ख़-रू हो जाऊँ
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छाँव मिल जाए तो कम दाम में बिक जाती है
किसी दिन मेरी रुस्वाई का ये कारन न बन जाए
तुम ने जब शहर को जंगल में बदल डाला है
ऐ ख़ाक-ए-वतन तुझ से मैं शर्मिंदा बहुत हूँ
ख़ुद-कलामी
सहरा-पसंद हो के सिमटने लगा हूँ मैं
हम नहीं थे तो क्या कमी थी यहाँ
पैरों को मिरे दीदा-ए-तर बाँधे हुए है
फिर कर्बला के ब'अद दिखाई नहीं दिया
चले मक़्तल की जानिब और छाती खोल दी हम ने
महफ़िल में आज मर्सिया-ख़्वानी ही क्यूँ न हो
सफ़ेद सच