थके लोगों को मजबूरी में चलते देख लेता हूँ
मैं बस की खिड़कियों से ये तमाशे देख लेता हूँ
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सुन बस्तियों का हाल जो हद से गुज़र गईं
नींद का हल्का गुलाबी सा ख़ुमार आँखों में था
मेरी सारी ज़िंदगी को बे-समर उस ने किया
लाई है अब उड़ा के गए मौसमों की बास
बेचैन बहुत फिरना घबराए हुए रहना
इन लोगों से ख़्वाबों में मिलना ही अच्छा रहता है
शाम के मस्कन में वीराँ मय-कदे का दर खुला
मैं ख़ुश नहीं हूँ बहुत दूर उस से होने पर
बैठ जाता है वो जब महफ़िल में आ के सामने
उन से नयन मिला के देखो
डर के किसी से छुप जाता है जैसे साँप ख़ज़ाने में