'सैफ़ी' मेरे उजले उजले कोट पर
मल गया कालक दिसम्बर देख ले
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निडर भी ज़ात में अपनी हूँ ख़ुद से ख़ाइफ़ भी
तलब से भी कुछ और ज़ियादा मिला
आवाज़ दे के ख़ुद को बुलाना पड़ा मुझे
जब से मैं ख़ुद-शनास हो गया हूँ
हवा के साथ सफ़र इख़्तियार करना था
हवाओं से उलझे शजर रात-भर
ख़ौफ़ हर घर से झाँकता होगा
यूँ तो अक्सर दिल भी धड़के चेहरे पर
कोई दो मिनट हिल गई थी ज़मीं