मैं संग-ए-रह नहीं जो उठा कर तू फेंक दे
मैं ऐसा मरहला हूँ जो सौ बार आएगा
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अपने होने का कुछ एहसास न होने से हुआ
कई ज़मानों के दरिया-ए-नील छोड़ गया
कनार-ए-आब हवा जब भी सनसनाती है
मैं एक पल की था ख़ुश्बू किधर निकल आया
ज़रा सी देर जो ख़ौफ़-ए-दवाम ख़त्म हुआ
न सोचो तर्क-ए-तअल्लुक़ के मोड़ पर रुक कर
हुसैन ही था जो प्यासा उठा फ़ुरात से वो
फ़ैसला थे वक़्त का फिर बे-असर कैसे हुए
जिस्म अपना है कोई और न साया अपना
लगा है ऐसा कोई कासा-ए-सवाली हों
हमारे बीच में इक और शख़्स होना था