मैं संग-ए-रह हूँ तो ठोकर की ज़द पे आऊँगा
तुम आईना हो तो फिर टूटना ज़रूरी है
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ज़रा सी देर जो ख़ौफ़-ए-दवाम ख़त्म हुआ
फ़ैसला थे वक़्त का फिर बे-असर कैसे हुए
जो गया यहाँ से इसी मकान में आएगा
जो ख़स-ए-बदन था जला बहुत कई निकहतों की तलाश में
शहर का रोग है जिस सम्त भी बस जाएगा तू
हिसार-ए-गोश-ए-समाअत की दस्तरस में कहाँ
हुसैन ही था जो प्यासा उठा फ़ुरात से वो
मैं एक पल की था ख़ुश्बू किधर निकल आया
बिगड़ते बनते दाएरे सवाल सोचते रहे
मिरे बच्चे तिरा बचपन तो मैं ने बेच डाला
कड़े हैं कोस सफ़र दूर का ज़रूरी है
लहू-लुहान था शाख़-ए-गुलाब काट के वो