कनार-ए-आब हवा जब भी सनसनाती है
कनार-ए-आब हवा जब भी सनसनाती है
नदी में चुपके से इक चीख़ डूब जाती है
दिखाई देती हैं लाशें ही लाशें आँगन में
कहाँ से ख़ुद-कुशी कर के ये धूप आती है
वो शय जो बैठती है छुप के नंगे पेड़ों में
गुज़रते वक़्त बहुत तालियाँ बजाती है
पियूँ शराब मैं दुश्मन के कासा-ए-सर में
ये बुज़दिल आरज़ू कैसी हँसी उड़ाती है
'मुसव्विर' उस को बताते हैं ज़ानिया ये लोग
कुएँ में अपनी जो सब नेकियाँ गिराती है
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