न सोचो तर्क-ए-तअल्लुक़ के मोड़ पर रुक कर
क़दम बढ़ाओ कि ये हादसा ज़रूरी है
Jaun Eliya
Gulzar
Rahat Indori
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Parveen Shakir
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बदन के दीवार-ओ-दर में इक शय सी मर गई है
जो गया यहाँ से इसी मकान में आएगा
कड़े हैं कोस सफ़र दूर का ज़रूरी है
थे उस के साथ ज़वाल-ए-सफ़र के सब मंज़र
आँखें यूँ बरसीं पैराहन भीग गया
सजनी की आँखों में छुप कर जब झाँका
रिश्तों का बोझ ढोना दिल दिल में कुढ़ते रहना
मैं मुन्हरिफ़ था जिस से हर्फ़-ए-इंहिराफ की तरह
अपने होने का कुछ एहसास न होने से हुआ
टूटते जिस्म के महताब बिखर जा मुझ में