रिश्तों का बोझ ढोना दिल दिल में कुढ़ते रहना
हम एक दूसरे पर एहसान हो गए हैं
Faiz Ahmad Faiz
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Parveen Shakir
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Javed Akhtar
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मिरे बच्चे तिरा बचपन तो मैं ने बेच डाला
अपने होने का कुछ एहसास न होने से हुआ
बराबर ख़्वाब से चेहरों की हिजरत देखते रहना
सफ़-ए-मुनाफ़िक़ाँ में फिर वो जा मिला तो क्या अजब
लगा है ऐसा कोई कासा-ए-सवाली हों
इसी उमीद पे जलती हैं दश्त दश्त आँखें
अज़ाबों से टपकती ये छतें बरसों चलेंगी
बिगड़ते बनते दाएरे सवाल सोचते रहे
न सोचो तर्क-ए-तअल्लुक़ के मोड़ पर रुक कर
ख़त्म होने दे मिरे साथ ही अपना भी वजूद
उसी ने हिजरतें कुछ और भी बिताई थीं
गुज़रते पत्तों की चाप होगी तुम्हारे सेहन-ए-अना के अंदर