अज़ाबों से टपकती ये छतें बरसों चलेंगी
अभी से क्यूँ मकीं मसरूफ़-ए-मातम हो गए हैं
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गुज़रते पत्तों की चाप होगी तुम्हारे सेहन-ए-अना के अंदर
शहर का रोग है जिस सम्त भी बस जाएगा तू
कड़े हैं कोस सफ़र दूर का ज़रूरी है
सफ़-ए-मुनाफ़िक़ाँ में फिर वो जा मिला तो क्या अजब
हुसैन ही था जो प्यासा उठा फ़ुरात से वो
जिसे मैं छू नहीं सकता दिखाई क्यूँ वो देता है
पहचान का असासा वो जब हार आएगा
हर साँस में मिस्मार खंडर टूटते रहना
न टूट कर इतना हम को चाहो कि रो पड़ें हम
मैं आँधी में रेज़ा रेज़ा इक फूल चुन रहा हूँ
मैं संग-ए-रह हूँ तो ठोकर की ज़द पे आऊँगा
उसी ने हिजरतें कुछ और भी बिताई थीं