गुज़रते पत्तों की चाप होगी तुम्हारे सेहन-ए-अना के अंदर
फ़सुर्दा यादों की बारिशें भी मुझे भुलाने के बाद होंगी
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रिश्तों का बोझ ढोना दिल दिल में कुढ़ते रहना
हवा रह में दिए ताक़ों में मद्धम हो गए हैं
बिगड़ते बनते दाएरे सवाल सोचते रहे
शहर का रोग है जिस सम्त भी बस जाएगा तू
टूटते जिस्म के महताब बिखर जा मुझ में
हमारे बीच में इक और शख़्स होना था
कई ज़मानों के दरिया-ए-नील छोड़ गया
जो ख़स-ए-बदन था जला बहुत कई निकहतों की तलाश में
जिसे मैं छू नहीं सकता दिखाई क्यूँ वो देता है
लगा है ऐसा कोई कासा-ए-सवाली हों
न टूट कर इतना हम को चाहो कि रो पड़ें हम
उसी ने हिजरतें कुछ और भी बिताई थीं