न टूट कर इतना हम को चाहो कि रो पड़ें हम
दबी दबाई सी चोट इक इक उभर गई है
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सजनी की आँखों में छुप कर जब झाँका
लहू-लुहान था शाख़-ए-गुलाब काट के वो
कनार-ए-आब हवा जब भी सनसनाती है
इसी उमीद पे जलती हैं दश्त दश्त आँखें
है वहम जैसे कोई नक़्श ये दुहाई दे
मैं मुन्हरिफ़ था जिस से हर्फ़-ए-इंहिराफ की तरह
जो ख़स-ए-बदन था जला बहुत कई निकहतों की तलाश में
टूटते जिस्म के महताब बिखर जा मुझ में
हर साँस में मिस्मार खंडर टूटते रहना
अपने होने का कुछ एहसास न होने से हुआ
लगा है ऐसा कोई कासा-ए-सवाली हों
हिसार-ए-गोश-ए-समाअत की दस्तरस में कहाँ