इक मौज-ए-ख़ून-ए-ख़ल्क़ थी किस की जबीं पे थी
इक तौक़-ए-फ़र्द-ए-जुर्म था किस के गले में था
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मैं किस के हाथ पे अपना लहू तलाश करूँ
ग़म-ए-दौराँ ने भी सीखे ग़म-ए-जानाँ के चलन
रूह के इस वीराने में तेरी याद ही सब कुछ थी
क़दम क़दम पे तमन्ना-ए-इल्तिफ़ात तो देख
चारागरो
हार जीत
यूँ तो वो हर किसी से मिलती है
इस क़दर अब ग़म-ए-दौराँ की फ़रावानी है
नगर नगर मेले को गए कौन सुनेगा तेरी पुकार
जुदाई
गिर्या तो अक्सर रहा पैहम रहा
पहला पत्थर