रह-गुज़र का है तक़ाज़ा कि अभी और चलो
एक उम्मीद जो मंज़िल के निशाँ तक पहुँची
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रौनक़-ए-अर्ज़-ओ-समा शम्स ओ क़मर मैं ही हूँ
मैं जो बद-हवास था महव-ए-कयास तुम भी थे
बयाबाँ को पशेमानी बहुत है
ख़मोशी की गिरह खोले सर-ए-आवाज़ तक आए
ख़ुदा भी कैसा हुआ ख़ुश मिरे क़रीने पर
निर्भया की मौत पर
सदाक़त
रीत पर इक निशान है शायद
यक़ीन आज भी वहम-ओ-गुमान में गुम है
रेत पर इक निशान है शायद