रेत पर इक निशान है शायद
ये हमारा मकान है शायद
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किस ने देखी है बहारों में ख़िज़ाँ मेरे सिवा
रेत के शानों पे शबनम की नमी रात गए
रह-गुज़र का है तक़ाज़ा कि अभी और चलो
निर्भया की मौत पर
ख़ुदा भी कैसा हुआ ख़ुश मिरे क़रीने पर
बहकना मेरी फ़ितरत में नहीं पर
सदाक़त
रौनक़-ए-अर्ज़-ओ-समा शम्स ओ क़मर मैं ही हूँ
ख़ल्वत-ए-जाँ से चली बात ज़बाँ तक पहुँची
रीत पर इक निशान है शायद
ख़मोशी की गिरह खोले सर-ए-आवाज़ तक आए
किसे गुमाँ था