बहकना मेरी फ़ितरत में नहीं पर
सँभलने में परेशानी बहुत है
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रेत के शानों पे शबनम की नमी रात गए
निर्भया की मौत पर
कश्तियाँ लिखती रहें रोज़ कहानी अपनी
बयाबाँ को पशेमानी बहुत है
आठवाँ दरवाज़ा
सदाक़त
किस ने देखी है बहारों में ख़िज़ाँ मेरे सिवा
यक़ीन आज भी वहम-ओ-गुमान में गुम है
ख़ुदा भी कैसा हुआ ख़ुश मिरे क़रीने पर
रेत पर इक निशान है शायद
रीत पर इक निशान है शायद
रौनक़-ए-अर्ज़-ओ-समा शम्स ओ क़मर मैं ही हूँ