कश्तियाँ लिखती रहें रोज़ कहानी अपनी
मौज कहती ही रही ज़ेर-ओ-ज़बर मैं ही हूँ
Habib Jalib
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रह-गुज़र का है तक़ाज़ा कि अभी और चलो
आठवाँ दरवाज़ा
यक़ीन आज भी वहम-ओ-गुमान में गुम है
निर्भया की मौत पर
रेत के शानों पे शबनम की नमी रात गए
रीत पर इक निशान है शायद
ख़ुदा भी कैसा हुआ ख़ुश मिरे क़रीने पर
रौनक़-ए-अर्ज़-ओ-समा शम्स ओ क़मर मैं ही हूँ
बयाबाँ को पशेमानी बहुत है
रेत पर इक निशान है शायद