कभी तो लगता है ये उज़्र-ए-लंग है वर्ना
मुझे तो कुफ़्र ने इस्लाम पर लगाया हुआ है
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कभी तो यूँ कि मकाँ के मकीं नहीं होते
याद पड़ता तो नहीं कब मिरा देखा हुआ है
मालूम नहीं नींद किसे कहते हैं लेकिन
मिरी नज़र को दर-ओ-बाम पर लगाया हुआ है
इश्क़ में ख़ैर था जुनूँ लाज़िम
रुकना पड़ेगा और भी चलने के नाम पर
दिल का शजर तो और भी पलने की आड़ में
मुँह-अँधेरे ही कोई घर से निकलता हुआ था
एक तो काविश-ए-जिगर भी करूँ
जहाँ पे होता हूँ अक्सर वहाँ नहीं होता
पाने की तरह का न तो खोने की तरह का