कभी तो यूँ कि मकाँ के मकीं नहीं होते
कभी कभी तो मकीं का मकाँ नहीं होता
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इश्क़ में ख़ैर था जुनूँ लाज़िम
याद पड़ता तो नहीं कब मिरा देखा हुआ है
ख़ाक अतराफ़ में उड़ती है बहुत पानी दे
जहाँ पे होता हूँ अक्सर वहाँ नहीं होता
मुँह-अँधेरे ही कोई घर से निकलता हुआ था
पाने की तरह का न तो खोने की तरह का
दिल का शजर तो और भी पलने की आड़ में
रुकना पड़ेगा और भी चलने के नाम पर
मिरी नज़र को दर-ओ-बाम पर लगाया हुआ है
कुछ दिनों दश्त भी आबाद हुआ चाहता है
एक तो काविश-ए-जिगर भी करूँ