कुछ दिनों दश्त भी आबाद हुआ चाहता है
कुछ दिनों के लिए अब शहर को वीरानी दे
Allama Iqbal
Wasi Shah
Mir Taqi Mir
Habib Jalib
Gulzar
Faiz Ahmad Faiz
Ahmad Faraz
Jaun Eliya
Parveen Shakir
Mohsin Naqvi
Javed Akhtar
Anwar Masood
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(341) Peoples Rate This
एक तो काविश-ए-जिगर भी करूँ
मुँह-अँधेरे ही कोई घर से निकलता हुआ था
जहाँ पे होता हूँ अक्सर वहाँ नहीं होता
इश्क़ में ख़ैर था जुनूँ लाज़िम
कभी तो लगता है ये उज़्र-ए-लंग है वर्ना
मिरी नज़र को दर-ओ-बाम पर लगाया हुआ है
कभी तो यूँ कि मकाँ के मकीं नहीं होते
पाने की तरह का न तो खोने की तरह का
दिल का शजर तो और भी पलने की आड़ में
रुकना पड़ेगा और भी चलने के नाम पर
याद पड़ता तो नहीं कब मिरा देखा हुआ है