मालूम नहीं नींद किसे कहते हैं लेकिन
करता तो हूँ इक काम मैं सोने की तरह का
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रुकना पड़ेगा और भी चलने के नाम पर
ख़ाक अतराफ़ में उड़ती है बहुत पानी दे
एक तो काविश-ए-जिगर भी करूँ
मुँह-अँधेरे ही कोई घर से निकलता हुआ था
पाने की तरह का न तो खोने की तरह का
याद पड़ता तो नहीं कब मिरा देखा हुआ है
जहाँ पे होता हूँ अक्सर वहाँ नहीं होता
कुछ दिनों दश्त भी आबाद हुआ चाहता है
कभी तो यूँ कि मकाँ के मकीं नहीं होते
मिरी नज़र को दर-ओ-बाम पर लगाया हुआ है
कभी तो लगता है ये उज़्र-ए-लंग है वर्ना