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और कोई पहचान मिरी बनती ही नहीं
देख ऐ शख़्स मुझे यूँ न गिरफ़्तार समझ
हालत-ए-हाल में आदाब नहीं भूलता मैं
कुछ इस लिए भी अकेला सा हो गया हूँ 'नदीम'
मोहब्बत लाज़मी है मानता हूँ
दिल से इक याद भुला दी गई है
राब्ता मुझ से मिरा जोड़ दिया करता था
आँख उठा कर तुझे देखा न पुकारा मैं ने
सुहुलत हो अज़िय्यत हो तुम्हारे साथ रहना है
जैसा हूँ जिस हाल में हूँ अच्छा हूँ मैं
तमाम उम्र जले और रौशनी नहीं की
दिल मुब्तला-ए-हिज्र रिफ़ाक़त में रह गया