दिये अब शहर में रौशन नहीं हैं
हवा की हुक्मरानी हो गई क्या
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जो याद-ए-यार से गुफ़्त-ओ-शुनीद कर ली है
हुदूद-ए-वक़्त के दरवाज़े मुंतज़िर हैं 'नसीम'
धूप से जिस्म बचाए रखना कितना मुश्किल है
जो बात की थी हवा में बिखरने वाली थी
थके हुओं को जो मंज़िल कठिन ज़ियादा हुई
वो एक लम्हा कि मुश्किल से कटने वाला था
ब-नाम-ए-अम्न-ओ-अमाँ कौन मारा जाएगा
कभी तो सर्द लगा दोपहर का सूरज भी
क़बा-ए-जाँ पुरानी हो गई क्या
जब ख़बर ही न कोई मौसम-ए-गुल की आई
लफ़्ज़ भी जिस अहद में खो बैठे अपना ए'तिबार