लफ़्ज़ भी जिस अहद में खो बैठे अपना ए'तिबार
ख़ामुशी को इस में कितना मो'तबर मैं ने किया
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शिकस्त
कोई तो ज़ेहन के दर पर ज़रूर दस्तक दे
जो याद-ए-यार से गुफ़्त-ओ-शुनीद कर ली है
सफ़र का मरहला-ए-सख़्त ही ग़नीमत था
बूँद पानी को मिरा शहर तरस जाता है
जब ख़बर ही न कोई मौसम-ए-गुल की आई
सूरज के हम-सफ़र हैं हमारी उमंग ये
ब-नाम-ए-अम्न-ओ-अमाँ कौन मारा जाएगा
थके हुओं को जो मंज़िल कठिन ज़ियादा हुई
धूप से जिस्म बचाए रखना कितना मुश्किल है