सफ़र का मरहला-ए-सख़्त ही ग़नीमत था
ठहर गए तो बदन की थकन ज़ियादा हुई
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शिकस्त
लफ़्ज़ भी जिस अहद में खो बैठे अपना ए'तिबार
वो एक लम्हा कि मुश्किल से कटने वाला था
कभी तो सर्द लगा दोपहर का सूरज भी
दिये अब शहर में रौशन नहीं हैं
ब-नाम-ए-अम्न-ओ-अमाँ कौन मारा जाएगा
जो याद-ए-यार से गुफ़्त-ओ-शुनीद कर ली है
जब ख़बर ही न कोई मौसम-ए-गुल की आई
आप ही अपना सफ़र दुश्वार-तर मैं ने किया
हुदूद-ए-वक़्त के दरवाज़े मुंतज़िर हैं 'नसीम'