जो बात की थी हवा में बिखरने वाली थी
जो ख़त लिखा था वो पुर्ज़ों में बटने वाला था
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हुदूद-ए-वक़्त के दरवाज़े मुंतज़िर हैं 'नसीम'
दिये अब शहर में रौशन नहीं हैं
धूप से जिस्म बचाए रखना कितना मुश्किल है
थके हुओं को जो मंज़िल कठिन ज़ियादा हुई
वो एक लम्हा कि मुश्किल से कटने वाला था
ब-नाम-ए-अम्न-ओ-अमाँ कौन मारा जाएगा
जो याद-ए-यार से गुफ़्त-ओ-शुनीद कर ली है
आप ही अपना सफ़र दुश्वार-तर मैं ने किया
सफ़र का मरहला-ए-सख़्त ही ग़नीमत था
बूँद पानी को मिरा शहर तरस जाता है
क़बा-ए-जाँ पुरानी हो गई क्या