रात कितनी गुज़र गई लेकिन
इतनी हिम्मत नहीं कि घर जाएँ
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इन सहमे हुए शहरों की फ़ज़ा कुछ कहती है
न मिला कर उदास लोगों से
तिरे ख़याल से लो दे उठी है तन्हाई
ख़मोशी उँगलियाँ चटख़ा रही है
तुझ बिन घर कितना सूना था
याद आई वो पहली बारिश
याद है अब तक तुझ से बिछड़ने की वो अँधेरी शाम मुझे
इस से पहले कि बिछड़ जाएँ हम
तिरे आने का धोका सा रहा है
कहते हैं ग़ज़ल क़ाफ़िया-पैमाई है 'नासिर'
गली गली मिरी याद बिछी है प्यारे रस्ता देख के चल
दिन ढला रात फिर आ गई सो रहो सो रहो