पाँव के नीचे सरकती हुई रीत
सर में मसनद की हवा बाक़ी है
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चौखटा दिल का यहाँ है हू-ब-हू तुझ सा कोई
नैन नशे की चढ़ती नुमू पर
रब्त भी तोड़ा बनी नित की तलब का बेस भी
शाह-बलूत के ऊपर देख
क़ाएम है आबरू तो ग़नीमत यही समझ
रुत ने रिवायत के रुख़ बदले हर मसऊद सऊद गया
दरिया पे टीकरी से परे ख़ानक़ाह थी
घर वाले भी सोए हैं अभी शब भी घनी है
साँस में साजना हवा की तरह
बदन सुंदर सजल मुख पर सिंंहापा
और अंत में जुदाई बड़ी कर्ब-नाक है
मजमा' नहीं मुजल्ला है अशआ'र की जगह