आबादियों में दश्त का मंज़र भी आएगा
गुज़रोगे शहर से तो मिरा घर भी आएगा
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मुझ को मुआफ़ कीजिए रिंद-ए-ख़राब जान के
बहुत ही दिल-नशीं आवाज़-ए-पा थी
आग इक और लगा देंगे हमारे आँसू
हाए कैसी वो शाम होती है
इक बे-क़रार दिल से मुलाक़ात कीजिए
दुनिया कहीं जो बनती है मिटती ज़रूर है
न मंदिर में सनम होते न मस्जिद में ख़ुदा होता
सब कुछ सर-ए-बाज़ार जहाँ छोड़ गया है
सामने उस के एक भी न चली
दीदा-ए-अश्क-बार ले के चले