दिल की बे-ताबी ठहरने नहीं देती मुझ को
दिन कहीं रात कहीं सुब्ह कहीं शाम कहीं
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ख़ुदा के वास्ते गुल को न मेरे हाथ से लो
तूफ़ाँ उठा रहा है मिरे दिल में सैल-ए-अश्क
हस्तियाँ नीस्तियाँ याँ भी हैं ऐसी जैसे
उस ज़ुल्फ़ ने हम से ले के दिल बस्ता किया
दिल न लो दिल का ये लेना है न इख़्फ़ा होगा
मुँह से पर्दा न उठे साहब-ए-मन याद रहे
'नज़ीर' तेरी इशारतों से ये बातें ग़ैरों की सुन रहा है
थी छोटी उस के मुखड़े पर कल ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल और तरह
जिन दिनों हम को उस से था इख़्लास
चमक है दर्द है कौंदन पड़ी है हूक उठती है
दरिया ओ कोह ओ दश्त ओ हवा अर्ज़ और समा