कितना तनिक सफ़ा है कि पा-ए-निगाह का
हल्का सा इक ग़ुबार है चेहरे के रंग पर
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सब किताबों के खुल गए मअ'नी
जब उस का इधर हम गुज़र देखते हैं
न टोको दोस्तो उस की बहार नाम-ए-ख़ुदा
अभी कहें तो किसी को न ए'तिबार आवे
चितवन की कहूँ कि इशारात की गर्मी
कहा था हम ने तुझे तो ऐ दिल कि चाह की मय को तू न पीना
बुतों की काकुलों के देख कर पेच
हुई शक्ल अपनी ये हम-नशीं जो सनम को हम से हिजाब है
हो कुछ आसेब तो वाँ चाहिए गंडा ता'वीज़
कमाल-ए-इश्क़ भी ख़ाली नहीं तमन्ना से
नज़र पड़ा इक बुत-ए-परी-वश निराली सज-धज नई अदा का
ये गिला दिल से तो हरगिज़ नहीं जाना साहब