किस को कहिए नेक और ठहराइए किस को बुरा
ग़ौर से देखा तो सब अपने ही भाई-बंद हैं
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उसी की ज़ात को है दाइमन सबात-ओ-क़याम
पुकारा क़ासिद-ए-अश्क आज फ़ौज-ए-ग़म के हाथों से
मिज़्गाँ वो झपकता है अब तीर है और मैं हूँ
अव्वलन उस बे-निशाँ और बा-निशाँ को इश्क़ है
क्या हाल अब उस से अपने दिल का कहिए
दूर-अज़-तरीक़ मुझ को समझियो न ज़ाहिदा
तोड़े हैं बहुत शीशा-ए-दिल जिस ने 'नज़ीर' आह
गर हम ने दिल सनम को दिया फिर किसी को क्या
हम में भी और उन्हों में पहले जो यारियाँ थीं
थे हम तो ख़ुद-पसंद बहुत लेकिन इश्क़ में
न लज़्ज़तें हैं वो हँसने में और न रोने में
रोटियाँ