ख़्वाब क्या था जो मिरे सर में रहा
रात भर इक शोर सा घर में रहा
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नींद जब ख़्वाब को पुकारती है
मैं राख होता गया और चराग़ जलता रहा
नया लिबास पहन कर भी
दिल-तंग हूँ मकान के अंदर पड़ा हुआ
पीछे मुड़ के देखना अच्छा लगा
बिखर के जाता कहाँ तक कि मैं तो ख़ुशबू था
उभर रहे हैं कई हाथ शब के पर्दे से
मैं उसे कैसे जीत सकता हूँ
ख़ाक उगाती हैं सूरतें क्या क्या
कभी हँस कर कभी आँसू बहा कर देख लेता हूँ
पुरानी मिट्टी से पैकर नया बनाऊँ कोई