बैठे बैठे यूँही क़लम ले कर
मैं ने काग़ज़ के एक कोने पर
अपनी माँ
अपने बाप के दो नाम
एक घेरा बना के काट दिए
और
इस गोल दाएरे के क़रीब
अपना छोटा सा नाम टाँक दिया
मेरे उठते ही, मेरे बच्चे ने
पूरे काग़ज़ को ले कर फाड़ दिया!
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दरिया हो या पहाड़ हो टकराना चाहिए
इंतिज़ार
हर चमकती क़ुर्बत में एक फ़ासला देखूँ
दूर के चाँद को ढूँडो न किसी आँचल में
कभी कभी यूँ भी हम ने अपने जी को बहलाया है
जो हो इक बार वो हर बार हो ऐसा नहीं होता
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
फ़क़त चंद लम्हे
यही है ज़िंदगी कुछ ख़्वाब चंद उम्मीदें
नक़ाबें
आएगा कोई चल के ख़िज़ाँ से बहार में
नील-गगन में तैर रहा है उजला उजला पूरा चाँद