पहले वो रंग थी
फिर रूप बनी
रूप से जिस्म में तब्दील हुई
और फिर जिस्म से बिस्तर बन कर
घर के कोने में लगी रहती है
जिस को
कमरे में घटा सन्नाटा
वक़्त-बे-वक़्त उठा लेता है
खोल लेता है बिछा, लेता है
Faiz Ahmad Faiz
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एक बे-चेहरा सी उम्मीद है चेहरा चेहरा
चौथा आदमी
न जाने कौन सा मंज़र नज़र में रहता है
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
यही है ज़िंदगी कुछ ख़्वाब चंद उम्मीदें
दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है
हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा
कोशिश के बावजूद ये इल्ज़ाम रह गया
मोहब्बत
अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं
काला अम्बर पीली धरती या अल्लाह
खेल