पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है
अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं
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हर इक रस्ता अँधेरों में घिरा है
बस यूँही जीते रहो
हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
उठ के कपड़े बदल घर से बाहर निकल जो हुआ सो हुआ
नया सफ़र
जितनी बुरी कही जाती है उतनी बुरी नहीं है दुनिया
बेसन की सौंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी माँ
इत्तिफ़ाक़
मैं अपने इख़्तियार में हूँ भी नहीं भी हूँ
बे-नाम सा ये दर्द ठहर क्यूँ नहीं जाता
बिंदराबन के कृष्ण-कन्हैया अल्लाह-हू
जब से क़रीब हो के चले ज़िंदगी से हम