मैं सत्ह-ए-शेर पे उभरा हूँ आफ़्ताब लिए
मैं सत्ह-ए-शेर पे उभरा हूँ आफ़्ताब लिए
ख़ुलूस-ए-फ़िक्र शुऊर-नज़र के ख़्वाब लिए
सुख़न-शनास भी है फ़न से आश्ना भी है
वो कल मिला था मुझे फ़ैज़ की किताब लिए
सुकून-ए-जिस्म तो हासिल कभी हुआ ही नहीं
मैं जी रहा हूँ तिरी क़ुर्बतों के ख़्वाब लिए
झुलस रहा है जवानी की लौ में मेरा बदन
तिरी तलाश में हूँ गर्मी-ए-शबाब लिए
नज़र उठा कि तिरे रू-ब-रू मैं ठहरा हूँ
नियाज़-ओ-नाज़ के महके हुए गुलाब लिए
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