चाहता हूँ मैं तशद्दुद छोड़ना
ख़त ही लिखते हैं जवाबी लोग सब
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तबाह ख़ुद को उसे ला-ज़वाल करते हैं
वो अपने शहर-ए-फ़राग़त से कम निकलता है
दिल भी एहसासात भी जज़्बात भी
आसमानों से ज़मीं की तरफ़ आते हुए हम
अपनी आहट पे चौंकता हूँ मैं
आम मुआफ़ी के लिए
तिरे बग़ैर कोई और इश्क़ हो कैसे
मोहब्बत वाले हैं कितने ज़मीं पर
जाने किस उम्मीद पे छोड़ आए थे घर-बार लोग
इतनी ताज़ीम हुई शहर में उर्यानी की
हमें बुरा नहीं लगता सफ़ेद काग़ज़ भी