रो रो के लोग कहते थे जाती रहेगी आँख
ऐसा नहीं हुआ, मिरी बीनाई बढ़ गई
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पूछो कि उस के ज़ेहन में नक़्शा भी है कोई
दिल भी एहसासात भी जज़्बात भी
कैसी जन्नत के तलबगार हैं तू जानता है
दूर जितना भी चला जाए मगर
तबाह ख़ुद को उसे ला-ज़वाल करते हैं
आसमानों से ज़मीं की तरफ़ आते हुए हम
रोक दो ये रौशनी की तेज़ धार
फ़्रीज़र में रक्खी शाम
नाम से उस के पुकारूँ ख़ुद को
दिन-ब-दिन घटती हुई उम्र पे नाज़िल हो जाए
हैं लापता ज़माने से सारे के सारे ख़्वाब
इतनी ताज़ीम हुई शहर में उर्यानी की