कैसी जन्नत के तलबगार हैं तू जानता है
तेरी लिक्खी हुई दुनिया को मिटाते हुए हम
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फ़्रीज़र में रक्खी शाम
इंसानियत के ज़ोम ने बर्बाद कर दिया
बस तिरे आने की इक अफ़्वाह का ऐसा असर
हम भी माचिस की तीलियों से थे
नाम ही ले ले तुम्हारा कोई
हमें बुरा नहीं लगता सफ़ेद काग़ज़ भी
सैर-ए-दुनिया को जाते हो जाओ
पाँव के नीचे से पहले खींच ली सारी ज़मीं
इस बार इंतिज़ाम तो सर्दी का हो गया
पूछो कि उस के ज़ेहन में नक़्शा भी है कोई
मैं अगर तुम को मिला सकता हूँ महर-ओ-माह से
तौक़-ए-बदन उतार के फेंका ज़मीं से दूर