कैसी जन्नत के तलबगार हैं तू जानता है
तेरी लिक्खी हुई दुनिया को मिटाते हुए हम
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चख लिया उस ने प्यार थोड़ा सा
ये ख़्वाब कौन दिखाने लगा तरक़्क़ी के
रोक दो ये रौशनी की तेज़ धार
सारे चक़माक़-बदन आए थे तय्यारी से
आँख खुल जाए तो घर मातम-कदा बन जाएगा
वो अपने शहर-ए-फ़राग़त से कम निकलता है
सब अपने अपने ख़ुदाओं में जा के बैठ गए
किसी के साए किसी की तरफ़ लपकते हुए
रो रो के लोग कहते थे जाती रहेगी आँख
पूछो कि उस के ज़ेहन में नक़्शा भी है कोई
हर मुत्तक़ी को इस से सबक़ लेना चाहिए
हम को डरा कर, आप को ख़ैरात बाँट कर