किसी के साए किसी की तरफ़ लपकते हुए
नहा के रौशनियों में लगे बहकते हुए
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आम मुआफ़ी के लिए
हम को डरा कर, आप को ख़ैरात बाँट कर
सारे चक़माक़-बदन आए थे तय्यारी से
दिल दे न दे मगर ये तिरा हुस्न-ए-बे-मिसाल
वो मेरे लम्स से महताब बन चुका होता
हर मुत्तक़ी को इस से सबक़ लेना चाहिए
बताऊँ कैसे कि सच बोलना ज़रूरी है
फ़्रीज़र में रक्खी शाम
बस तिरे आने की इक अफ़्वाह का ऐसा असर
फूल वो रखता गया और मैं ने रोका तक नहीं
जान-ए-जाँ मायूस मत हो हालत-ए-बाज़ार से
ये ख़्वाब कौन दिखाने लगा तरक़्क़ी के